'तरुड़ या तेड़' हमारे पहाड़ यानि उत्तरखंड में महाशिवरात्री के व्रत में इस आहार का उपयोग करते हैं। यह वैसे तो एक सब्जी है लेकिन आलू की तरह इसे भी फल की श्रेणी में रखा गया है।  यह फल शिवरात्रि के दिन शिवजी को भोग में लगाया जाता है। यह प्राय दिखने में थोड़ा सा शकरकंदी के समान होता है पर ये मीठा नहीं होता है।
तरुड़-tarud
इसके स्वाद को हमारे पहाड़ में 'फराव' कर के संबोधित किया जाता है। इसे आलू की ही समान श्रेणी में रखा जाता है। ये जमीन के अंदर होता है इसकी बेल होती है जिस पर इसके बीज लगते हैं।

गाँव में महाशिवरात्री के पहले दिन तरुड़ को  खोदा जाता है। कहा जाता है कि जब ये लगाया (रोपा) जाता है उसके तीसरे साल या उसके बाद इसे खोदते हैं। इसे खोदते समय यह भी कहा जाता है कि जब यह खोदते समय दिखने लगता है तो देख कर उत्साहित नहीं होना चाहिए वरना इस पर नजर लग जाती है और ये जमीन के अंदर धँसने लगता है और गायब हो जाता है।

गाँव में तो लगभग हर किसी को ये नसीब हो जाता है पर बाजार वाले इलाकों में लोग इसे बाजार से ही खरीदते हैं। फिर इसे उबालने के लिये रखा जाता है और साथ ही आलू भी इसके साथ उबालने के लिये रखे जाते हैं।
दिन में व्रत के दौरान इसे उबले आलू की तरह भी खाते हैं क्यूंकी इसे एक फल कहा जाता है, और शाम को एक टुकड़ा भगवान के भोग के लिये रख कर बाँकी की सब्जी बनाई जाती है...थोड़ी सूखी सब्जी और थोड़ी दही या छांस डाल के तरी वाली सब्जी ! 

महाशिवरात्री के दिन दोपहर के बाद घर का एक व्रत वाला सदस्य लाल मिट्टी से शिवजी और पार्वती जी की प्रतिमूर्ति बनाता है जिनकी शाम को मंदिर के पास रख कर पूजा पाठ करते हैं। गाँव में पूजा के समय शिवजी को बेल पत्री, पाती और तरुड़ का भोग लगाया जाता है।

 "फराव" क्या होता है ? (सहाभार: उमेश चन्द्र पंत)
कुमाऊँनी फराव शब्द हिंदी के फलाहार का अपभ्रंश है कुमाऊँ बोली की अपनी कोई लिपि नहीं है और अधिकतर शब्द दूसरी भाषाओं से बने हैं, इसी क्रम में फलाहार भी कालांतर में फ़राव कहव जाने लगा, पहाड़ी संस्कृति के अनुसार व्रत में दो प्रकार का आहार लिया जाता है फलाहार और निराहार अर्थात फ़राव और निराव, फ़राव में अन्न का उपयोग नहीं किया जाता सिर्फ़ फल खाया जाता है.
तरूड़ एक जंगली कंदमूल फल है जो वल्लरी लता पर फल और भूमिगत तने दोनों के रूप में लगता है, को महाशिवरात्रि के दिन उबाल कर खाया जाता है,
जबकि निराव में फल और अन्न दोनों का प्रयोग नहीं होता, या तो ख़ाली पेट या फिर दूध का सेवन किया जाता है।


वैसे पहाड़ी संस्कृति के अनुसार व्रत और भी कई प्रकार के होते हैं जैसे लूँणि अर्थात नमक वाला और अलूँणि अर्थात बिना नमक वाला।
कुमाऊँनी संस्कृति में एक व्रत ऐसा भी है जिसमें हल से उगा हुआ अनाज नहीं खाया जाता बल्कि कूदाल (कुटव या कुटल) से बोया हुआ अनाज खाया जाता है उसमें भी विशेष रूप से उगल (हिंदी नाम-कट्टू) के आटे से बना पकवान खाया जाता है। (सहाभार: उमेश चन्द्र पंत)


दोस्तों ये मैंने अपने गाँव में अपने घर में देखा है इसिलिये आप के सामने प्रस्तुत किया है....तरीका थोड़ा अलग हो सकता है हर जगह पर ज्यादा अलग नहीं। शायद ऐसा ही आपके गाँव, घर में भी होता होगा। कुछ तो आपकी यादें भी जुड़ी होंगी इस से।

इसी के साथ आप सभी को मेरी ओर से  महाशिवरात्री की ढेर सारी शुभकामनायें जय भोले नाथ। जय भोले भण्डारी।

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