पहाड़ गाँव के सीमांत जिलों खासकर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ में हर साल भादौ (भाद्रप) महीने की सप्तमी और अष्टमी को सातों-आठों (गमरा) पर्व मनाया जाता है। यह पर्व दो दिन तक चलता है। सातों आठों के इस लोक पर्व में पहाड़ गाँव में बड़ा ही उत्सव का सा माहौल रहता है।

यह पर्व गौरा-महेश के विवाह के पश्चात पहली बार गौरा के अपने माईके आने की खुशी में मनाया जाता है। गाँव में अलग अलग मोहल्लों में या अगर छोटा गाँव हो तो किसी एक घर के अंदर दीवार पर कमेट से लिपाई करके स्याही, रंग या हरे पत्तों के रस से गौरा-महेश के चित्रों के साथ साथ अन्य देवी देवताओं के भी चित्र बनाये जाते हैं। इन चित्रों में गौरा-महेश के विवाह के बाद डोली में बैठी हुई गौरा और नन्दी महाराज में बैठे महेश और बारतीयों के साथ साथ नन्दा देवी पर्वत, और बिरुड़ भिगाती हुई ग्रामीण महिलाएं और पानी के धारे के चित्र भी अंकित होते हैं।

महिलाएं सातों-आठों दोनों दिन व्रत रखती हैं दिन के समय कुछ महिलाएं खेत में जा कर चौलाई, धान, मक्का, उगल, मलसी(एक प्रकार की घास आदि) पाँच चीजों के पौधों को उखाड़ कर उनसे गौरा-महेश की प्रतिमा बनाती हैं और उन्हें कपड़े पहनाकर लकड़ी की डलिया में रखकर सामूहिक रूप से लोक गीतों को गाते हुए उस घर पर आती हैं जहां पर पूजन की तैयारी की होती है। फिर घर पर गौरा महेश को पारंपरिक परिधान में सजाया जाता है। गौरा-महेश के सिर पर मुकुट भी बांधा जाता है। उन्हें उस पूजा वाले स्थल पर रखा जाता है। फिर सभी महिलाएं हर्षो उल्लास के साथ गौरा महेश के गीत गाते हैं। नाच करते हैं और उनकी कथाएँ सुनते और सुनाते हैं। शाम के वक़्त पूजा-आरती की जाती है और महिलाएं सातों के दिन हाथ में डोरु (पीले रंग का एक विशेष धागा) बांधती हैं और आठों के दिन गले में दूब धाग(दुबड़ा) बांधती हैं जो लाल रंग का होता है !

डोरु-दूब धाग
पूजा-आरती होने के बाद गाँव की महिलाएं प्रसाद आदि वितरण करके भोजन करती हैं और फिर सभी महिलाएं एक बार फिर घर के आँगन में झोड़ा-चाँचरी आदि का आयोजन करती हैं।

 दूसरे दिन फिर सुबह सभी महिलाएं पूजन स्थल पर आकार गौरा-महेश की पूजा-आरती करती हैं और फिर उन्हें नचाती हैं। उसके बाद दिन भर अपना काम काज करने के बाद शाम के समय फिर से सभी महिलाएं एकत्रित हो कर नाच-गाना करके शाम की पूजा आरती करती हैं गौरा-महेश की।

सुबह की पूजा आरती करते समय पंचमी को भिगाये गये बिरुड़ और आटे के साथ फल फूल चड़ाये जाते हैं और शाम को आरती के समय फल, फूल विशेष रूप से दाड़िम के पत्तों को चड़ाया जाता है और घी का अर्घ दिया जाता है।

आठों पर्व के दिन शाम को पूजा के समय गाँव की महिलाएं एवं कन्याएँ एक जगह पर इकट्ठा होती हैं वहाँ पर चाँचरी और नाच खेल करने के साथ साथ एक चादर में गौरा-महेश को दो दिनों में चड़ाये गये फल-फूलों को रखा जाता है और इसे चारों कोनों से पकड़ कर ऊपर की ओर उछाला जाता है जिस भी कुँवारी कन्या के पास कोई फल गिरता है तो यह माना जाता है कि अगले सावन तक उस कन्या का विवाह हो जाएगा।

ये सब पुरानी मान्यतायें हैं। कहीं कहीं आठों के दिन ही गौरा-महेश को विदा कर दिया जाता है और कहीं पाँच दिन बाद इन्हें किसी मंदिर के किसी पेड़ पर वितसरजन कर दिया जाता है। गौरा महेश को विदाई देते समय कई महिलाओं की आँखें भी नम हो जाती हैं हो भी क्यूँ न अपनी बेटी और जमाई जो माना जाता है इन्हें। गाजे बाजे के साथ इन्हें विदाई दे कर इनसे अगले वर्ष जल्दी आने की आश लगाई जाती है।
   
    आठों पर्व के दिन कई जगह पर आठों कौतिक(मेला) भी लगता है लोग मेले में जाते हैं और वहाँ से खासकर इस दिन के सगुन रूप में जलेबी लेकर आते हैं। मेले में झोड़ा-चाँचरी का आयोजन भी होता है। गाँव घरों में लगने वाला आठों मेला बड़ा ही सामान्य होता है मेले में अखरोठ, जलेबी, बांस निगाल की डलिया, घास काटने के लिये दराँती के साथ साथ बच्चों के खिलौनों के रूप में गुब्बारे एवं अन्य कई खिलौने देखने को मिलते हैं।

बिरुड़ पंचमी 
सातों आठों पर्व से पहले भादौ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को बिरुड़ पंचमी के नाम से जाना जाता है इसी दिन से सातों-आठों पर्व की धूम मचने लगती है। इस दिन गाँव-घरों में एक तांबे के बर्तन को साफ करके धोने के बाद इस पर गाय के गोबर से पाँच आकृतियाँ बनाई जाती हैं और उन पर दुब घास लगाई जाती है और इनपर अछ्त पीठाँ(टीका) लगा कर उस बर्तन में पाँच या सात प्रकार के अनाज के बीजों को भिगाया जाता है इन बीजों में मुख्यतया गेहूं, चना, भट्ट, मास, कल्यूं, मटर, गहत आदि होते हैं। पंचमी को भीगा ने के बाद सातों के दिन इन्हें पानी के धारे पर ले जाकर धोया जाता है जहां पर पाँच या सात पत्तों में इन्हें रखकर भगवान को भी चड़ाया जाता है। फिर आठों के दिन इन्हें गौरा-महेश को चड़ा कर व्रत टूटने के बाद में इसको प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। कहीं कहीं इन्हें पकाया भी जाता है।

दोस्तों हमारा पहाड़ गाँव हमेशा से अपनी प्राचीन लोक संस्कृति के लिये विश्व में प्रचलित है। इसके कण कण में देवी देवताओं का निवास माना गया है। पहाड़ गाँव के सीधे-साधे लोग सभी देवी देवताओं को यहाँ तक कि प्रकृति के हर रूप को अपने घर-परिवार, अपने सामाजिक जीवन में विशेष स्थान देते हैं। यहाँ के लोग देवी-देवताओं को अपना मानते हुये इन्हें अपनी ही जीवन शैली के हिसाब से इनका नामकरण भी कर देते हैं। इनसे एक रिश्ता जोड़कर देखते है। इसलिये सातों-आठों पर पूजे जाने वाले गौरा-महेश को भी अपना मानकर उन्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में मानते हैं जिसमें माँ गौरा को 'गमरा दीदी' और भगवान शिव को 'महेश भीना (जीजा)' कहकर संबोधित किया जाता है।

ये सब प्राचीन समय से चली आ रही लोक परम्पराएँ हैं। आधुनिक जीवन की दिनचर्या में बदलाव के साथ साथ इन लोक परमपराओं में भी थोड़ा बहुत बदलाव देखने को मिलता है आज के समय में। पहले लोग पंचमी को भिगाये जाने वाले बिरुडों को तांबे या पीतल के बर्तन में भिगाते थे पर अब जो भी बर्तन मिलता है उसमें भीगा दिया जाता है। सातों-आठों पर्व पर गौरा-महेश को भी आधुनिक तौर तरीके से तैयार किया जाने लगा है।

ये अच्छी बात है कि आज भी हम अपनी लोक संस्कृति से जुड़े हुये हैं और हमें हमेशा इसके साथ जुड़ा रहना है।हम सभी को ये कोशिस करनी है कि जिस तरह हमारे पूर्वजों ने हमें ये संस्कृति की असीम भेंट हमें दी है उसी तरह हम भी अपने आगे आने वाली पीढ़ी को ये अदभूत उपहार इसी रूप में उन्हें दें। इसके लिये हमें अपनी संस्कृति से जुड़े रहना होगा और अपने बच्चों को भी इस बारे में हर तरह की जानकारी देनी चाहिए। ये जरूरी है कि हम समय के साथ आगे बड़ें पर इसके लिये हमे अपनी लोक संस्कृति को भी साथ साथ लेकर चलना है।

दोस्तो मैंने जो अपने गाँव में देखा और सुना वो आपके सामने प्रस्तुत किया। हर क्षेत्र विशेष में अलग अलग रूप देखें को मिलता है। इसलिये हो सकता है कि आपके गाँव में कुछ और भी अलग होता हो। इतना तो हम जानते हैं कि इसी तरह से होता है पूरे पहाड़ गाँव में पर कुछ कुछ जगहों पर थोड़ा बहुत अंतर देखने को मिलता है हर रस्मों-रिवाज को निभाने में। भूल-चूक गलती माफ करना दोस्तो। अपनी राय जरूर दीजिएगा।    

===Edited दिनांक 2 सितंबर 2015 =====
दिनांक 2 सितंबर 2015 को एक मित्र श्री 'दिनेश अवस्थी' जी से यह लेख भी प्राप्त हुआ है जो "बिरूड़ाष्टमी ब्रत" की कथा से संबन्धित है।

बिरूड़ाष्टमी के व्रत के संबंध में एक गाथा भी प्रचलित है जिसे व्रती महिलाऐं श्रद्धापूर्वक सुनती हैं। इस दिन गले में दुबड़ा धारण किये जाने के महत्व के बारे में भी बताया गया है। पुरातन काल में एक ब्राहमण था जिसका नाम बिणभाट था। उसके सात पुत्र व इतनी ही बहुएं भी थी लेकिन इनमें से संतान किसी की भी नहीं थी। इस कारण वह बहुत दुखी था। एक बार वह भाद्रपद सप्तमी को माल देश से अपने यजमानों के यहां से आ रहा था। मार्ग में एक नदी पड़ती थी। जब वह नदी को पार कर रहा था तो उसने पानी में दालों के छिलके बहते हुए देखे। जब उसने ऊपर से आने वाले पानी के प्रवाह को देखा तो उसकी नजर एक महिला पर पड़ी जो नदी में कुछ धो रही थी। वह उत्सुकतावश वहां गया तो देखा स्त्री तो स्वयं पार्वती हैं और कुछ दालों के दानों को धो रही हैं। उसने जिज्ञासावश विनीत भाव से इसका कारण पूछा। तब उन्होंने बताया कि वह अगले दिन आ रही विरूड़ाष्टमी के ब्रत के निमित्त उसके लिए आवश्यक विरूड़ों को धो रही है। इस पर भाट ने इस व्रत के प्रयोजन, क्रियाविधि तथा फल के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की। पार्वती ने बताया कि यह व्रत बहुत महान है। इस व्रत के निमित्त भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को व्रती रह कर बिरूड़ों को गेहंू, चना, मास, मटर, गहत आदि पंच्च धान्यों को उमा-महेश्वर का ध्यान करके घर के एक कोने में अखंड दीपक जलाकर किसी पात्र में भिगा दिया जाता है। दो दिन तक भीगने के बाद तीसरे दिन अभुक्ताभरण सप्तमी को इन्हें धोकर साफ कर लिया जाता है। अष्टमी को व्रतोपवास पूर्वक इनसे गौरा-महेश्वर का पूजन कर इन बिरूड़ों को इसी रूप में ही प्रसाद ग्रहण किया जाता है। भाट ने घर आकर बड़ी बधु को यथाविधि बिरूड़ भिगाने को कहा। बहु ने श्वसुर के कथानुसार अगले दिन व्रत रखकर दीपक जलाया और पंच्चधान्यों को एकत्र कर उन्हें एक पात्र में डाला। जब वह उन्हें भिगो रही थी तो उसने एक चने का दाना मुंह में डाल लिया जिससे उसका व्रत भंग हो गया। इसी प्रकार छहों बहुओं का व्रत भी किसी न किसी कारण भंग हो गया। सातवीं वहु सीधी थी। उसे गाय-भैंसों को चराने के काम में लगाया था। उसे जंगल से बुलाकर बिरूड़े भिगोने को कहा गया। उसने दीपक जला बिरूड़े भिगोये। तीसरे दिन उसने विधि विधान के साथ अमुक्ताभरण सप्तमी को उन्हें अच्छी तरह से धोया छिलके अलग किये। दूर्वाष्टमी के दिन व्रत रखकर सायंकाल को उनसे गौरा-महेश्वर का पूजन किया। दूब की गांठों को डोरी में बांध कंठी दुबड़ा पहना और बिरूड़ों का प्रसाद ग्रहण किया। मां पार्वती के आशीर्वाद से दसवें माह उसकी कोख से पुत्र ने जन्म लिया। बिणभाट प्रसन्न हो गया। वह बालक की जन्मकुंडली बनवाने तथा उसके ग्रह नक्षत्रों का शुभाशुभ फल जानने के लिए ज्योतिष के पास पहुंचा। ज्योतिष ने कुंडली बनाकर कहा बच्चे का जन्म शुभ नक्षत्र में नहीं हुआ है। इसके लिए बड़ा अनुष्ठान करना पड़ेगा। भाट के आग्रह करने पर ज्योतिष ने बताया कि इसका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ है। यह शुभ नहीं है। यह जान बिणभाट दुखी हुआ। घर पहुंचने पर परेशान श्वसुर को देख बड़ी बहू ने उससे पूछा तो उसने ज्योतिषी की बात उसे बता दी। इस पर उसने सलाह दी कि छोटी बहू को किसी बहाने मायके भेज दिया जाय उसके बाद इस बालक को किसी नौले में डुबो दिया जाये। उसकी सलाहमान भाट ने वैसा ही किया। जब छोटी बहु भागे-भागे मायके पहुंची तो उसने वहां सब कुशल देखा। उसे अकेली आया देख उसकी मां को बालक के साथ किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी। मां ने भोजन करा उसे उल्टे पांव वापस लौटा दिया और साथ में उसकी झोली में सरसों के दाने रखकर हाथ में तालू (छोटी सी लोहे की छड़) पकड़ा दी और कहा तू रास्ते भर सरसों के दाने जमीन में डाल कर उपर से इस तालू की घुंडी से मिटटी डालते जाना। यदि सरसों के हरे-भरे पौंधे निकलते रहें तो समझना बच्चा सकुशल है अन्यथा उसे विपन्न समझना। वह ऐसा करती गयी और देखती रही कि पौधे हरे भरे निकल रहे हैं। इधर योजना के अनुसार ससुर और जेठानी ने शिशु को पानी के नौले में डाल दिया पर वह मरा नहीं। उधर घर पहुंचने की जल्दी में छोटी बहु को प्यास लग गयी और वह पानी पीने के लिए संयोगवश उसी नौले में जा पहुंची। वह पानी पीने के लिए जैसे ही नौले में झुकी तो बालक दुबड़ा पकड़ कर बाहर निकल आया और अपनी मां के गले से लिपट गया। इसके बाद वह बालक को घर लेकर आयी तो उसने देखा वहां पर भी बिल्कुल वैसा ही एक अन्य शिशु खेल रहा है। उसकी खुशी का ठिकाना नही रहा। बिण भाट भी एक के स्थान पर दो पोतों को पाकर प्रसन्न हो गया। तभी से महिलाऐं संतति की कामना तथा उसके कल्याण के लिए आस्था के साथ इस व्रत को किया करती हैं।
===End===

यूं ही नहीं हमारे पहाड़ गाँव को देवभूमि कहा जाता है देवी-देवताओं से जुड़ा हुआ हर रिश्ता हर अपना पन यही कारण है। दोस्तो आप सबको मेरा ये पोस्ट कैसा लगा जरूर बताएं। यह मेरा एक छोटा सा प्रयास है अपनी लोकसंस्कृति को बचाए रखने का। 

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धन्यवाद। 

5 Comments

  1. हमारी लोक संस्कृति को बचाये रखने का आपका यह प्रयास उल्लेखनीय है ...मैं भी भले ही शहर में रहती हूँ लेकिन पहाड़ मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं और मैं जब भी गांव जाती हूँ मुझे अपार सुकून मिलता है अपने पहाड़, अपने लोगों से मिलकर ... यू ट्यूब पर भी अपने उत्तराखंड को देखने-सुनने जाती रहती हूँ

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    1. धन्यवाद दी। मैं भी आपके पोस्टों को पढ़ता रहता हूँ जब भी टाइम मिलता है। बहुत अच्छी रचनाएँ होती हैं आपकी हर क्षेत्र में। आपसे जुड़कर मुझे भी अच्छा लगा।

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  2. A very good article. Such articles are extremely essential for new members joining pahadi families. Keep up the good work.

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  3. बहुत उम्दा और रोचक जानकारी। धन्यवाद

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