बहुत से मित्रों और स्नेहिजनों को जरूर ये बात कड़वी लगंगी पर यही सत्य हैं...
मैदानों में बसे पहाड़ प्रेमियों और पर्यावरण प्रेमियों पुरखों की धरोहर एवं सारा पहाड़ बेचकर मैदान में बैठे हो और बात करते हो पर्यावरण और पहाड़ की। अधिकांश पलायन तो पहाड़ों से इन पर्यावर्णविदों व पशु प्रेमियों के कारण ही हुआ ठहरा....अरे तुम्हें क्या पता आए दिन बाघ, भालू इन ग्रामीणों और उसके पालतू जानवरों को अपना ग्रास बना रहे हैं, बंद पैकेट का खाने वालों तुम क्या जानो आए दिन बंदर, जंगली सुंवर ग्रामीणों की मेहनत की फसल रौंद जाते हैं क्या किसी पर्यावरण विद या पशुप्रेमी ने इसके बारे में तनिक सोचा....अरे महाराज सभी सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुये वातानुकूलित कमरों में बैठ कर कागज कलम की सहायता से न ही पर्यावरण बचता है ना ही पशुधन।
अल्मोड़ा के एक गाँव में गाँव वालों द्वारा नदी में डाले कांटे में एक मछ्ली क्या फंस गयी सभी अपना पर्यावरण और पशु प्रेम दिखाने लगे....मत्स्य आखेट करते समय गौछ मछली उनके जाल में फंस जाएगी ये उन ग्रामीणों ने खुद नहीं सोचा होगा, जानबूझकर उसका शिकार नहीं किया गया होगा, और न ही गाँव वालों को इसके संरक्षित प्रजाति होने का पता होगा।
गौछ मछली
गौछ मछली पकड़ कर लाते ग्रामीण
बताते चलें कि नेपाल और उत्तराखंड के बीच बहने वाली पर्वतीय नदियों में ही अक्सर इस गौछ मछली का बसेरा माना जाता है। जहां तक जानकारी है मत्स्य आखेट प्रतिबंधित नहीं है शायद, हाँ ये बात अलग है कि संरक्षित वन क्षेत्र में बीना अनुमति के शिकार करना या किसी चीज का दोहन करना अपराध है। कोई भी नदी जंगल अगर ग्राम सभा के राजस्व क्षेत्र में है तो उसके जल से लेकर हर पैदावार पर ग्रामीणों का ही अधिकार होता है अगर वो प्रतिबंधित न हो तो।
ये तो सभी जानते हैं कि ग्रामीण दोहन करते हैं तो संरक्षण और पालन पोषण भी करते हैं पर वहीं दूसरी ओर मैदान में बैठे लोग सिवाय दोहन के कुछ करते नहीं जैसे- घर बनायंगे तो उसके बीच में आने वाले पेड़ को काट देंगे और कहीं एक पेड़ उसकी जगह लगायंगे नहीं हाँ लिखंगे जरूर कि 'पेड़ लगाना चाहिए'। पेड़ नहीं गाड़ी की पार्किंग जरूर चाहिए उन्हें। मतलब सारा ठेका या ज़िम्मेदारी केवल पहाड़ गाँव के ग्रामीणों की....? आपकी कुछ भी नहीं सिवाय लिखने के।
अल्मोड़ा में हुई इस घटना से गाँव वालों पर ठोस कार्यवाही करना उचित नहीं है हाँ उन्हें समझाबुजागर जागरूक करने की जरूरत जरूर है। गाँव की आजीविका गाँव के जल जंगल जमीन से ही चलती है, ग्रामीण उसी पर निर्भर रहते हैं आधुनिक तकनीक से गाँव गाँव को जोड़ो तो स्वत गाँव की जनता भी जागरूक हो जाएगी।
{क्या करूँ एक पहाड़ी हूँ पहाड़ गाँव की पीड़ भली भांति समझता हूँ....आज भी पहाड़ गाँव के जीवन यापन से रु बरु हूँ। इसलिये दिल से ये बातें निकली....किसी को बुरी लगी होंगी तो मेरी तरह सोचकर देखना एकबार}

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