मैं  सच कहूँ तो सिर्फ द्वि रोटी खातिर अर्थात केवल दो रोटी के चक्कर में ही तो दूर हैं अपने पहाड़(गाँव) से। गाँव से दूर आकर शहर में रह तो रहा हूँ पर इसका मतलब ये नहीं कि शहरी बन गया हूँ। शहर के रंग में दिखावे के लिये रंगा जरूर हूँ पर अंदर से आज भी वही पहाड़(गाँव) का पहाड़ी हूँ।

हाँ वही पहाड़ी हूँ जो गाँव में रोज सुबह घाम (धूप) आने से पहले 'निनार पटै' उठ कर ईज़ा या आमा के साथ गोठ में जाकर गोरू, बल्द, भैंस, बकार को बाहर 'खल' में बांधने में मदद और उसके बाद गोरू-बाछों को नहला-धूला कर न्यार-पानी डालकर और बकरियों को दान-गुद देकर गोठ से गोबर निकालती आमा, ईज़ा, बैनी को गोबर की डलिया उठाने में हाथ लगाने का काम करता था और अब भी करता हूँ जब गाँव जाता हूँ।

पहाड़ (गाँव) से आए इस भीड़-भाड़ भरे शहर में और भागने लगे सुबह शाम उस काम के पीछे जिससे कुछ पैसे कमा सकें अपने भविष्य को बनाने के लिये। वही हर सुबह केवल इसी डर से उठना कि कहीं ऑफिस जाने के लिये देर ना हो जाय, कहीं गाड़ी ना छुट जाय, कहीं बाथरूम में कोई और न चले जाय, कहीं नल पर आने वाला पानी बंद न हो जाय, दूध वाला आ जाएगा, बस इसी वजह से। न नींद है आराम की न चैन। बेचैनी इस बात की कि छत पर कोई और हमसे पहले कपड़े सुखाने के लिये न डाल दे फिर कपड़े कहाँ डालंगे सूखने के लिये, आज काम होगा कि नहीं, बॉस क्या कहेगा, तनख्वा कब मिलेगी, मकान मालिक का किराया देना है, शाम को टाइम पर ऑफिस से निकलूँगे कि नहीं बस बेचैन इन बातों से।

पर हूँ तो वही पहाड़ (गाँव) का पहाड़ी जहां खुशी से सुकून भरी नींद से उठते हैं हर सुबह, न क्वे ले काम लीझी देरी, न त बेचैनी। कोई फिकर नहीं होती है पानी और बाथरूम की क्यूंकि नौले-धारे पर जाएँगे साथ में नहाने धोने दगड़ियों के साथ हंसी-मज़ाक और बातें करते हुये। दूध तो गोरू-भैंस का सुबह ईज़ा-आमा निकाल ही लेती हैं नहा-धोकर घर जाने तक खान-पीन भी बना ही देती हैं ईज़ा, आमा, बैनी कोई भी। पूजा पाठ करके, खान-पीन खा के या तो खेतों पर चले जाओ या गाय-बैल को लेकर ग्वाला। ईज़ा-बाज्यू के लाड़-प्यार में कोई झरक न फिकर।

शहर में आए तो पता चला कि मतलब की दुनिया है, पैसे की दुनिया है, बात भी मतलब की, साथ भी मतलब का और काम भी मतलब का। पड़ोस वाले घर में या बगल के कमरे में कौन है कहाँ का है बस सिर्फ देखने से मालूम होगा, कैसा है क्या कर रहा है कुछ भी पता नहीं। पड़ोस के घर में सुख हो या दुख इन्विटेशन आया तो जाना है नहीं तो अपना रास्ता। भरोसा करें तो कैसे और किस पर वो भी किस नाते से...? सिर्फ 2 मिनट के लिये भी घर को खुला छोड़ कार नहीं जा सकते ये सिखाया इसी शहर ने, अपना काम हो रहा है ना दूसरे से क्या मतलब ये सिखाया इसी शहर ने, भीड़-भाड़ होने के बावजूद अकेले हो इस शहर में ये सिखाया इसी शहर ने।

मैं उसी पहाड़(गाँव) का पहाड़ी हूँ जहां पर अगर किसी के घर में जानवर भी बीमार हो जाय तो पूरा गाँव खैर-खबर लेने पहुँच जाता है, जहां सुख हो या दुख शामिल होने के लिये इन्विटेशन की जरूरत नहीं पड़ती, जहां साथ मिलकर दूसरे के काम-काज में हाथ बंटाया जाता है, जहां अपने घरों पर ताला तो छोड़ो बस जो भी आस पड़ोस में घर पर हो (आमा, बूबू, काका, काखी, दीदी, भूली, ददा, भुला) को सिर्फ यह कहकर कहीं भी निकल जाते हैं कि "मी वां (जगह का नाम) जान लागी रयूं और मी कै वापसी में इतुक टैम लागी जाल", जहां जीते हैं सिर्फ एक दूजे के लिये और एक-दूजे के सहारे, जहां इतनी ज्यादा भीड़ नहीं है फिर भी भरा भरा सा लगता है।

हाँ मैं पहाड़(गाँव) का वो पहाड़ी हूँ जो दो रोटी की जुगत में शहर आकर यहाँ शहर में केवल दिखावे के लिये शहरी बन गया हूँ, पर जब भी गाँव जाता हूँ वही अपने पहाड़ (गाँव) का पहाड़ी बन जाता हूँ। मैं अपने पहाड़(गाँव) जाने से पहले 'शहरी नामक खाल' को उतार लेता हूँ। भले ही शहर में मैं कितना बड़ा शहरी क्यूँ न दिखता हूँ पर पहाड़(गाँव) जाकर में वही पहाड़ी बन जाता हूँ।


वो कहते हैं "ना जैसा देश वैसा भेष" इसे बहुत तवजू देता हूँ में अपनी जिंदगी में। ये मेरे दिल से निकली हुयी बातें हैं जो आप लोगों के साथ शेयर कार रहा हूँ मुझे उम्मीद है कि शब्द मेरे हैं पर पहचान आपकी भी यही है। शिकायत है उनसे जो पहाड़(गाँव) से शहर तो आते हैं पर पहाड़ जाते हैं फिर शहरी बनकर! दोस्तो शहरी बनो शहर में पहाड़ी बनो पहाड़(गाँव) में।


मैंने अपनी लोकसंस्कृति पर आधारित कुछ वैब पेज बनाए हैं जैसे फेस्बूक पेज, पहाड़ी विडियो यूट्यूब चैनल, वैबसाइट ब्लॉग जिनकी लिंक इस प्रकार हैं अगर समय मिले आपको तो देखिएगा जरूर। 

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धन्यवाद।                  

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