हमारे पहाड़ गाँव के रस्मों रिवाज भी बहुत ही अनूठी होने वाली ठहरी...या कहिए की थी। क्यूंकी अब धीरे धीरे समय के साथ साथ इन परम्पराओं और रस्मों रिवाजों में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। बाहय परिवेश का असर पड़ रहा ठहरा इनमें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में।

आज उन्हीं मे से एक रस्म "पीठाँ लगाना" की बात कर रहा हूँ। हमारे पहाड़ गाँव में यही कहने वाले ठहरे फिर भले ही और जगह जो भी कहते हों। शादी से पहले निभाई जाने वाली यह रस्म भी शादी का एक अहम हिस्सा ठहरा। शहरों में इसे "सगाई" और एंगेजमेंट कहने वाले ठहरे शायद। बदलते परिवेश की वजह से अब हमारे पहाड़ में भी धीरे धीरे बाज़ारों(एक तरह के छोटे शहरी ग्रामीण क्षेत्र) से होकर ये गाँव की तरफ रुख करते हुये "पीठाँ लगाना" की जगह "सगाई" के नाम से जाना जाने लगा है।
इस रस्म की खास बात यह होती थी कि किसी शुभ दिन मुहरत निकालकर लड़के वालों के घर से कुछ बुजुर्ग सदस्य लड़की के घर जा कर एक तरह से शगुन ले जाते थे, जिसमें एक डिब्बे में या एक तरह से पात्र में दही और उसके साथ हरी सब्जी की कुछ पातियाँ लगा कर और कुछ नारयल एवं लड़की के लिये कुछ वस्त्र ले जाते हैं।

फिर लड़की को पीठाँ लगाया जाता था इसका मतलब ये ठहरा कि अब वो लड़की लड़के वालों के परिवार का सदस्य हो गयी उस समय से। लड़के वाले लड़की के माईके के लोगों को बड़े बुजुर्गों को ग्वाव(नारियल) देते हैं और अगर लड़की से रिस्ते में छोटे सदस्यों को कुछ पैसे वगैरा देते हैं। इस रस्म की एक और खास बात यह है कि लड़की वाले लड़के वालों को तांबे का एक बर्तन (तौल, गगरी) आदि देते हैं पर अब धीरे धीरे इनकी जगह अन्य अन्य बाजारी चीजों ने ले ली है जैसे, डिनर सैट, सिलाई मशीन इत्यादि। कहीं कहीं तो बस केवल रुपयों तक ही सीमित रह गया ठहरा।

यह रस्म शादी से पहले होती है कुछ दिन पहले, एक दिन पहले या कुछ समय पहले शुभ मुहूर्त के अनुसार।
मालूम है कि जैसा देश वैसा भेष तो करना ही पड़ता है, पर यह सही नहीं कि कुछ ऐसा कर जाएँ जिससे कि इन प्राचीन पहाड़ गाँव की रस्मों रिवाजों को ही बदल दें और आने वाली पीढ़ी को इसके बारे में जानने का अवसर ही ना मिले।

बहुत से लोग ऐसे भी हैं वो भले ही गाँव से कितने ही दूर क्यूँ न हों आज भी उसी तरह से अपने पहाड़ गाँव की इन रीति-रिवाजों का उसी तरह मान सम्मान करते हैं यह देख कर अच्छा लगता है। यह चित्र उसी का एक उदाहरण है.... 

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