चैत्र यानि चैत का महींना हमारे पहाड़ में भिटौली महीने के नाम से भी जाना जाता है, भिटौली शब्द भेंट से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ स्थानीय भाषा में 'मिलने' से होता है।

भिटौली उत्तरांचल की एक लोक परम्परा है। इस परम्परा में शादीशुदा लड़्की के मायके वाले अपनी बहन, बेटी को उसके ससुराल में जाकर भेंट (मिलने और उपहार देने) या "भिटौली" देते हैं।

इस भेंट में मायके वालों की तरफ़ से माता-पिता (अगर जीवित हैं तो) इसे लेकर लड़की के घर जाते हैं तथा माता-पिता के बाद भाई या अन्य माईके वाले इस कार्य को आगे को भी कायम रखते हैं।

भिटौल पकाते हुये

भिटौली के रूप में लड़की के माईके वाले घर में बनाये हुये कुछ पकवान जैसे- पूरी, पूवे, खीर, और फल, वस्त्र इत्यादि लाते हैं, और साथ ही चाँवल का आटा, तेल, गेहूं का आटा भी लाते हैं जिस से लड़की अपने ससुराल में उस दिन कुछ पकवान बनाती है और फिर गाँव में आस पड़ोस में बांटती है।

भिटौल पकाते हुये 2
 शादी के बाद की पहली भिटौली लड़की को उसकी शादी के समय या शादी के बाद के पहले फाल्गुन माह में ही दी जाती है, और फिर हर साल चैत्र के महीने में दी जाती है।

शादी के बाद का जो पहला चैत का महीना होता है उसे 'काला महीना' स्थानीय भाषा में 'काव मेंहन' कहा जाता है, लड़की उस महीने के पहले 5 दिन या पूरे महीने अपने मायके में ही रहती है।

यह भी प्रचलन है कि शादी होने के बाद के पहले चैत महीने के 5 दिन तक पत्नी को अपने पति के मुख को भी नहीं देखना होता है इसिलिये वे माईके चली जाती हैं।

यह प्रथा प्राचीन समय से ही चली आ रही है । ये इसलिये भी शुरु हुई होगी कि पहले आवागमन के सुगम साधन उपलब्ध नहीं थे और ना ही लड़की को मायके जाने की ज्यादा छूट इतियादी थी।
लड़की किसी निकट समबन्धी के शादी ब्याह या दु:ख बिमारी में ही अपने ससुराल से मायके जा पाती थी।

इस प्रकार अपनी शादीशुदा लड़की से कम से कम साल में एक बार मिलने और उसको भेंट देने के प्रयोजन से ही यह त्यौहार बनाया गया। भाई-बहन के प्यार को समर्पित यह रिवाज सिर्फ उत्तरांचल के लोगों के द्वारा ही मनाया जाता है।

विवाहित बहनों को चैत का महिना आते ही अपने मायके से आने वाली 'भिटौली' का इंतजार रहने लगता है। उत्तरांचल की हर विवाहित महिला चैत माह में अपने मायके वालों का इंतजार करती है।

भिटौल देने जाती हुई माँ
इस चैत महीने का हमारी पहाड़ी महिलाओं के लिये कितना महत्व है, हमारे पहाड़ी लोकगीतों के माध्यम से आसानी से जाना जा सकता है।
स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी  के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करती है: "ना बासा घुघुती चैत की, याद आ जैछे मैके मैत की।"

चैत्र माह के दौरान पहाडो में सामान्यतः खेतीबाडी के कामों से भी लोगों को फुरसत रहती है। जिस कारण यह रिवाज अपने नाते-रिश्तेदारो से मिलने जुलने का और उनके हाल-चाल जानने का एक माध्यम बन जाता है।

आधुनिकता की दौड़ में ये सब अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है, पहले इनके प्रति जिस प्रकार से उत्साह एक ललक होती थी वो अब कम देखने को मिलती है।

पुवे बनाने के लिए चाँवल का आटा घोलते हुये
कहीं कहीं तो अब भी ये उसी तरह से निभाये जाते हैं पर उतना नहीं। इसके पीछे कारण हैं जैसे कि गाँव से शहरों की ओर होता हुआ पलायन। अब अधिकांश लड़की के माईके से उसके माईके वाले कुछ रूपये भेज देते हैं, जिनसे वो सामान खरीद कर एक दिन भिटौली पकाती है और आस पड़ोस में बाँट देती है।
अरे भिटौली महेंण ऐगो
दोस्तो मैंने अपने पहाड़ में जो देखा सुना वो आपके सामने प्रस्तुत कर दिया। कहीं पर लिखने में हुई गलती के लिये क्षमा प्राथी हूँ।

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