दोस्तों आज इस मोस्ट (बांस या निगाल की बनी हुई एक प्रकार की चटाई) के बारे में कुछ बात करते हैं। जो शायद गाँव की उन पुरानी यादों को फिर से ताजा कर दें।
हमारे पहाड़ के गाँवों में पुराने समय में इन मोस्टों का उपयोग अनाज को धूप में सुखाने के लिये किया जाता था। आज से कुछ साल पहले तक गाँव के अधिकतर घरों में इनका इस्तेमाल किया जाता था।
कुछ जगह पे तो आज भी हैं ये पर केवल विलुप्त होती अवस्था में। क्यूंकि अब ना ही गाँवों में लोग उतनी खेती करते हैं और अगर कहीं पर होती भी है तो इन मोस्टों की जगह प्लास्टिक या कपड़ों के बनी हुई चटाईयों या तिरपाल (मोटे मजबूत कपड़े की दरी) ने ले ली है।
इन मोस्टों को कहीं-कहीं पे महट भी कहा जाता है, शायद और भी कुछ नाम हो सकते हैं इसके अलग अलग गाँवों में। ये चौकोर होते थे इन्हें फ़ोल्ड करने के लिये दो लोगों की जरूरत पढ़ती थी इसके दो सिरों पर से दो लोग इसे फ़ोल्ड करना एक साथ शुरू करते थे ताकी यह एक बेलनकार आकृति में फ़ोल्ड हो जाय। फ़ोल्ड करने के बाद इसे बांधने के लिये इसी पर बीच में एक घास की या कोई भी रस्सी होती थी जिस से इसे बांधा जाता था। फिर इसे अंदर भाड़ (छत से थोड़ा नीचे और कमरे के ऊपर बना हुआ एक लकड़ियों से बनी हुई रैक) में या कहीं पर घर के किसी कोने में रख दिया जाता था।
गाँव में घर में आग में ज्यादा खाना बनाने की वजह से धुवां होने से कालिख भी ज्यादा ही होती थी जिसे 'झाला" कहते हैं, उसकी वजह से घर में रखा हुआ अधिकतर समान का रंग भी काला ही हो जाता था। पर अब गाँवों में भी गैस-सिलेन्डर पहुँच ने लगे हैं जिस से आग में खाना बनाना भी कम हो रहा है धीरे धीरे।
उसी की वजह से चित्र में आपको इस मोस्ट का रंग भी काला सा लगेगा।
दोस्तों हमारे पूर्वजों ने ये चीजें बनाई थी प्रकृति की मदद से अपने हाथों से अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये। ऐसी बहुत सी चीजों का उन्होने निर्माण किया था उन लोगों ने केवल प्राकृतिक संपदा(पेड़, पौंधे, घास, पत्थर) की सहायता से। जो काफी मजबूत और टिकाऊ होते थे।
अब हम समय के साथ इतना आगे निकल गए हैं कि इनका उपयोग तो हम कर नहीं पा रहे हैं और हम शायद इनकी जरूरत भी महसूस नहीं होती, पर इतना जरूर हैं कि ये हमारे लिये हमारी धरोहरों के रूप में हैं ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
ये मेरी बस एक छोटी सी कोशिस है इन अपनी धरोहरों अपने पूर्वजों की अमानत को अपनी यादों में हमेशा के लिये जीवित रखने की।
हम लोगों में से शायद किसी ने इन्हें नहीं भी देखा होगा, शायद किसी के गाँव में इंनका इस्तेमाल नहीं भी होता होगा, हो सकता है किसी अलग जगह पर इसे अलग नाम से जाना जाता होगा कुछ भी हो सकता है पर दोस्तो मेरी आप से एक विनती है कि आप अगर कुछ भी इस के बारे में जानते हैं तो अपने विचार जरूर व्यक्त करें।
इस बार अगस्त 2014 में हमारे एक फेस्बूक मित्र 'हरेन्द्र वर्मा जी' के द्वारा बागेस्वर के कपकोट मेले से ली गयी 'महट या मोस्ट' की एक ताजा तस्वीर प्राप्त हुयी। जानकर बहुत अच्छा लगा कि अब भी कुछ जगहों पर ये इस्तेमाल की जाती हैं।
दोस्तों आप में से शायद कई लोगों को अजीब भी लगता होगा और कई लोगों को शायद अच्छा भी पर क्या करूँ खाली वक्त पर बैठ कर मुझे यही ऐसे ही कुछ ना कुछ लिखना अच्छा लगता है।
धन्यवाद ! पर अपनी राय और सुझाव जरूर दें !
हमारा फेस्बूक पेज भी जरूर LIKE करें मित्रो।
www.facebook.com/MayarPahad
हमारा विडियो चैनल: http://goo.gl/tjuOvU
इसे Subscribe जरूर करें।
हमारे पहाड़ के गाँवों में पुराने समय में इन मोस्टों का उपयोग अनाज को धूप में सुखाने के लिये किया जाता था। आज से कुछ साल पहले तक गाँव के अधिकतर घरों में इनका इस्तेमाल किया जाता था।
कुछ जगह पे तो आज भी हैं ये पर केवल विलुप्त होती अवस्था में। क्यूंकि अब ना ही गाँवों में लोग उतनी खेती करते हैं और अगर कहीं पर होती भी है तो इन मोस्टों की जगह प्लास्टिक या कपड़ों के बनी हुई चटाईयों या तिरपाल (मोटे मजबूत कपड़े की दरी) ने ले ली है।
![]() |
मोस्ट या महट |
इन मोस्टों को कहीं-कहीं पे महट भी कहा जाता है, शायद और भी कुछ नाम हो सकते हैं इसके अलग अलग गाँवों में। ये चौकोर होते थे इन्हें फ़ोल्ड करने के लिये दो लोगों की जरूरत पढ़ती थी इसके दो सिरों पर से दो लोग इसे फ़ोल्ड करना एक साथ शुरू करते थे ताकी यह एक बेलनकार आकृति में फ़ोल्ड हो जाय। फ़ोल्ड करने के बाद इसे बांधने के लिये इसी पर बीच में एक घास की या कोई भी रस्सी होती थी जिस से इसे बांधा जाता था। फिर इसे अंदर भाड़ (छत से थोड़ा नीचे और कमरे के ऊपर बना हुआ एक लकड़ियों से बनी हुई रैक) में या कहीं पर घर के किसी कोने में रख दिया जाता था।
गाँव में घर में आग में ज्यादा खाना बनाने की वजह से धुवां होने से कालिख भी ज्यादा ही होती थी जिसे 'झाला" कहते हैं, उसकी वजह से घर में रखा हुआ अधिकतर समान का रंग भी काला ही हो जाता था। पर अब गाँवों में भी गैस-सिलेन्डर पहुँच ने लगे हैं जिस से आग में खाना बनाना भी कम हो रहा है धीरे धीरे।
उसी की वजह से चित्र में आपको इस मोस्ट का रंग भी काला सा लगेगा।
दोस्तों हमारे पूर्वजों ने ये चीजें बनाई थी प्रकृति की मदद से अपने हाथों से अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये। ऐसी बहुत सी चीजों का उन्होने निर्माण किया था उन लोगों ने केवल प्राकृतिक संपदा(पेड़, पौंधे, घास, पत्थर) की सहायता से। जो काफी मजबूत और टिकाऊ होते थे।
अब हम समय के साथ इतना आगे निकल गए हैं कि इनका उपयोग तो हम कर नहीं पा रहे हैं और हम शायद इनकी जरूरत भी महसूस नहीं होती, पर इतना जरूर हैं कि ये हमारे लिये हमारी धरोहरों के रूप में हैं ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
ये मेरी बस एक छोटी सी कोशिस है इन अपनी धरोहरों अपने पूर्वजों की अमानत को अपनी यादों में हमेशा के लिये जीवित रखने की।
हम लोगों में से शायद किसी ने इन्हें नहीं भी देखा होगा, शायद किसी के गाँव में इंनका इस्तेमाल नहीं भी होता होगा, हो सकता है किसी अलग जगह पर इसे अलग नाम से जाना जाता होगा कुछ भी हो सकता है पर दोस्तो मेरी आप से एक विनती है कि आप अगर कुछ भी इस के बारे में जानते हैं तो अपने विचार जरूर व्यक्त करें।
इस बार अगस्त 2014 में हमारे एक फेस्बूक मित्र 'हरेन्द्र वर्मा जी' के द्वारा बागेस्वर के कपकोट मेले से ली गयी 'महट या मोस्ट' की एक ताजा तस्वीर प्राप्त हुयी। जानकर बहुत अच्छा लगा कि अब भी कुछ जगहों पर ये इस्तेमाल की जाती हैं।
![]() |
महट या मोस्ट की एक ताजा तस्वीर |
दोस्तों आप में से शायद कई लोगों को अजीब भी लगता होगा और कई लोगों को शायद अच्छा भी पर क्या करूँ खाली वक्त पर बैठ कर मुझे यही ऐसे ही कुछ ना कुछ लिखना अच्छा लगता है।
धन्यवाद ! पर अपनी राय और सुझाव जरूर दें !
हमारा फेस्बूक पेज भी जरूर LIKE करें मित्रो।
www.facebook.com/MayarPahad
हमारा विडियो चैनल: http://goo.gl/tjuOvU
इसे Subscribe जरूर करें।
Post a Comment