दगड़ियों मजबूत टिकाऊ ज्योड (लंबी रस्सियाँ), गल्यां (पालतू जानवरों को बांधने की रस्सी) या किसी और छोटे मोटे चीज को बांधने के प्रयोग में आने वाली रस्सियों को बनाने के लिये हम पहाड़ी लोग अक्सर भांग, भेकुवा की लकड़ी, या बाभ्यो घास का ही प्रयोग करते थे, पर अब धीरे धीरे यह भी कम ही होने लगा है।

 इस आधुनिक जीवन में आज पलास्टिक की रस्सियाँ ज्यादा प्रचालन में आने लगी हैं हमारे गाँव घरों में भी अब। तो ल्वात वाले यह नजारे तो दुर्लभ ही हो गए हैं।

भांग या भेकुवा की सुखी लकड़ी से रस्सी बनाने के लिये इन्हें सबसे पहले कुछ दिनों तक पानी के तालाबों पर डुबाया जाता था गाड़ गधेरों के आसपास जिन्हें हम सीमार वाली जगह भी कहते थे, यह नहीं कि इस्तेमाल होने वाले पानी में बल्कि बेकार बहते हुये पानी के स्रोतों के आसपास इन्हें कुछ दिनों तक डुबोया जाता था और इनके ऊपर भारी पत्थर भी रख दिया जाता था जिससे कि ये हल्की लकड़ियाँ पानी के बहाव में बह ना जाएँ, जब यह पूरी तर गीली हो जाती थी तो इनसे वहीं जाकर ल्वात(रेसे) निकाल कर लाने वाले हुये, कुछ लोग तो लकड़ियाँ भी वापस ही लाते थे ताकि जलाने के काम आ जाएँ पर कुछ लोग छोड़ आया करते थे।


इन ल्वातों(रेशों) को लाकर फिर घाम(धूप) में सुखाने वाले ठहरे। जब ये सुख जाती थी इनको एक बोरे में रख दिया जाने वाला ठहरा और जब भी फुर्सत हो तो लंबी रस्सी या गल्यां बाटा जाता था किसी जानकार आदमी द्वारा।

ये रस्सियाँ काफी मजबूत होती हैं और तो और बिना रस्सी के भी इन ल्वातों(रेशों) से अक्सर कोई भी चीज बांधी जाती थी जहां पर जरूरत पड़े। तो आज का सलाम अपनी इस विलुप्त होती धरोहर के नाम।




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