कल हमारे पहाड़ गाँव का लोक पर्व "फूलदेई" था, सुबह से बहुत खुश और उत्साहित सा था मैं यह देखकर कि व्हाट्स'एप्प, फेसबूक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया से दोस्तों नाते रिशतेदारों के "फुलदेई" पर बधाई और शुभकामना संदेश आने लगे थे।
सोशल मीडिया पर इतना उत्साह पिछले कुछ सालों में से इस बार ज्यादा लगा।
कई मित्रों ने अपनी ओर से अच्छा प्रयास भी किया था जैसे कि एक पहाड़ी मित्र श्री विनोद गढ़िया जी ने सुंदर मनमोहक फुलदेई, वालपेपर और फ्रेम बनाया जो कि लगभग हर पहाड़ी के मोबाइल और सोशल मीडिया प्रोफाइल, पेज, ग्रुप में जरूर पहुंचा था किसी न किसी माध्यम से।
टीम Pandvas की बनाई गई डॉक्यूमेंटरी भी बहुत चर्चित रही और तो और नेशनल टीवी समाचार NDTV ने भी उसे प्राइम शो में स्थान दिया। कई यूट्यूब चैनलों की विडियो भी शेयर हो रही थी फुलदेई पर बनी हुई। मतलब ये कि बाढ़ सी आ गई थी सोशल मीडिया पर 'फूलदेई' की।
शाम ढलते ढलते कई जगह से पता लगा कि घरों पर बच्चे ही नहीं आये "फूलदेई" मनाने। हल्द्वानी से एक मित्र लिखते हैं....हल्द्वानी में क्यूँ लोग फूलदेई नहीं मनाते? अल्मोड़ा से एक मित्र लिखते हैं इस बार एक भी बच्चा नहीं आया घर पर फूलदेई मनाने। और तो और गाँव से ईज़ा ने फोन में बताया कि छोटी बहन और मेरे छोटे भतीजे ने ही मोहल्ले में फूलचढ़ाये घरों की देहली पर जबकि मोहल्ले में और भी बच्चे हैं। ऐसा क्या हो रहा है कि अपने लोकसंस्कृति और अपनी परम्पराओं के लिये इतनी उदासिनता।
हम तो ऐसे नहीं थे, हमने तो अपने बचपन में अपने लोकपर्वों को बढ़ी ही उत्सुकता से मनाया है। फूलदेई के लिये क्या बाजार से 10 रुपए के फूल ला कर हम अपने घर की देली पर कुछ चाँवल के दानों के साथ नहीं चढ़ा सकते थे, अगर ऐसा करते हुये सोशल मीडिया में पोस्ट करते तो शायद औरों की उत्सुकता और बढ़ती।
ये किस ओर जा रहे हैं हम, हमारी लोकसंस्कृति हमारी, बोली भाषा हमारी असल पहचान अब केवल सोशल मीडिया तक ही सीमित होने जा रही है धीरे धीरे। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने बचपन को अपने बच्चों से शेयर करें उन्हें अपनी लोकपरम्पराओं के बारे में बताएं, ये कोई मैटर नि करता है कि हम कहाँ रहते हैं गाँव में या शहर में, पहाड़ में या परदेश में। पर क्या हम लोग जहां हैं वहीं अपनी लोकरीतियों को अपने बच्चों को नहीं बता सकते ? क्यूँ रह गये हैं हम पीछे....? क्यूँ भूल रहे हैं हम अपनी परम्पराओं को ? हम नहीं तो कौन है इसका जिम्मेदार ? क्या कल आने वाली पीढ़ी कोसेगी नहीं हमें जब उनको उनके लोकपर्वों, रीतिरिवाजों के बारे में कुछ पता ही नहीं होगा ?
बहुत चिंतनीय है.....कम से कम एक कोशिश तो कर ही सकते हैं जहां हैं वहीं जैसा हो सके वैसा अपनी परम्पराओं का मान रखें। बस छोटी सी कोशिश....मैं कर रहा हूँ, थोड़ी आप से आशा है....आज से अभी से।
धन्यवाद मैं Gopu Bisht एक पहाड़ी
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