दोस्तों जैसा कि हम सभी जानते हैं हिन्दी (कलेंडर) पंचांग के हिसाब से हिन्दी नववर्ष चैत्र महीने से माना जाता है। वहीं हमारे पहाड़ (उत्तराखंड) में चैत्र माह के पहले दिन अर्थात संक्रांत को 'फूलदेई या फूल संक्रांत' पर्व के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन गाँव-घरों में बच्चे प्रात काल जल्दी उठने के बाद नहा-धोकर एक थाली और कटोरे में कुछ चाँवल, गुड़, मिश्री और इन दिनों होने वाले फूल(भिटोर, आड़ू, खुमानी, सरसों, प्योंली और बुरांस इतियादी के फूल) को रखकर अपने घर की देली (दहलीज/दरवाजे का चौखट) से शुरुवात कर के मोहल्ले के सभी घरों में जा कर देली की पुजा करते हैं अर्थात चाँवल और फूल चड़ाते हैं।
हर घर का एक सदस्य उनका इंतजार कर रहा होता है, वो सदस्य बच्चों की थाली में जो जो चीजें होती हैं उसी के समान उनकी थाली में चाँवल, गुड़, मिश्री, और पैसे अपने घर से भी देते हैं।
वो बच्चे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ पंक्तियाँ भी गुन गुनाते हैं:-
"फूल देई छ्म्मा देई,
भाई जी को बैणा जी को।
लाख बरस की उम्र देई,
जतुके देई उतुकै सही।
देई द्वार भर भकार,
सास ब्वारी एक लकार।
फूल देई छ्म्मा देई,
यो देई हीं बारंबार नमस्कार।
फूल देई छ्म्मा देई,
जतुके देई उतुकै सही।"
बच्चे फिर सारा सामान इकट्ठा कर के अपने अपने घरों में ले जाते हैं और शाम को फिर उन चीजों का कोई पकवान बनाते हैं, जैसे चाँवल को पीस कर उसमें गुड़ या मिश्री मिला कर उसकी 'साई' (चाँवल का हलवा) बनाते हैं, फिर आस पड़ोस में भी बांटते हैं।
इस तरह से मनाया जाता है, ये फूलदेई का पर्व हमारे पूरे पहाड़ में। मैंने अपने गाँव में बड़े होते हुये जो देखा सुना वो आपके सामने प्रस्तुत किया। होता तो यही है पर हो सकता है कि इस रिवाज को मनाने का ढंग अलग अलग जगह पर अलग अलग हो।
अब धीरे धीरे इन परम्पराओं का प्रचलन कम होता जा रहा है। आधुनिकता की इस दौड़ में ये चीजें धीरे धीरे पीछे छूट रही हैं, आजकल के बच्चों का रुझान भी कम होता जा रहा है इन चीजों से।
इसके जिम्मेदार भी कहीं न कहीं हम ही हैं क्यूंकी अब बच्चों को वो पहले का जैसा ना तो माहौल मिलता है ना इन परम्पराओं के बारे में ज्ञान। इन सबकी वजह है अपने पहाड़ से होता हुआ पलायन।
लेकिन मेरा मानना तो यही है कि हमें इन परम्पराओं को जीवित रखने का प्रयास तो करना ही चाहिये, इनके बारे में अपने बच्चों को जानकारी दे कर।
फुलदेई त्यार पर बनी एक कुमाऊँनी हिन्दी कविता
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धन्यवाद !
इस दिन गाँव-घरों में बच्चे प्रात काल जल्दी उठने के बाद नहा-धोकर एक थाली और कटोरे में कुछ चाँवल, गुड़, मिश्री और इन दिनों होने वाले फूल(भिटोर, आड़ू, खुमानी, सरसों, प्योंली और बुरांस इतियादी के फूल) को रखकर अपने घर की देली (दहलीज/दरवाजे का चौखट) से शुरुवात कर के मोहल्ले के सभी घरों में जा कर देली की पुजा करते हैं अर्थात चाँवल और फूल चड़ाते हैं।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHKVWB6cMsw5AWqBqNUh2rbEVOpf4PyzGPbdiV-KFINzwhyphenhyphenBe6xrGeDCKh7_IF_mp8g9t7ZWdH8Ca94eIKD4NbmUkwCnpnbDG8_tMZTMTYmT4tx9pkwVeOGVOdOTxO7VK5Z9cJD_rVGjal/s1600/1464600_679182675477670_1161937840_n.jpg)
वो बच्चे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ पंक्तियाँ भी गुन गुनाते हैं:-
![phooldeyi-फूलदेई या फूल संक्रांत phooldeyi-फूलदेई या फूल संक्रांत](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPhvuWhQhp8bjsQuvhxwQ_1fy-cErStm7AlAghGPgFz2OXKqITUSg0S1ZUaZZqCd2m0Rzh56NUVesi0k_stu7cj5nzvZXM4yIvlPat27JfPmtvfWFjKcZjV1mUx8MXEBo7PkdPj-NBzK0n/s1600/1234543_679168402145764_621929769_n.jpg)
भाई जी को बैणा जी को।
लाख बरस की उम्र देई,
जतुके देई उतुकै सही।
देई द्वार भर भकार,
सास ब्वारी एक लकार।
फूल देई छ्म्मा देई,
यो देई हीं बारंबार नमस्कार।
फूल देई छ्म्मा देई,
जतुके देई उतुकै सही।"
बच्चे फिर सारा सामान इकट्ठा कर के अपने अपने घरों में ले जाते हैं और शाम को फिर उन चीजों का कोई पकवान बनाते हैं, जैसे चाँवल को पीस कर उसमें गुड़ या मिश्री मिला कर उसकी 'साई' (चाँवल का हलवा) बनाते हैं, फिर आस पड़ोस में भी बांटते हैं।
इस तरह से मनाया जाता है, ये फूलदेई का पर्व हमारे पूरे पहाड़ में। मैंने अपने गाँव में बड़े होते हुये जो देखा सुना वो आपके सामने प्रस्तुत किया। होता तो यही है पर हो सकता है कि इस रिवाज को मनाने का ढंग अलग अलग जगह पर अलग अलग हो।
अब धीरे धीरे इन परम्पराओं का प्रचलन कम होता जा रहा है। आधुनिकता की इस दौड़ में ये चीजें धीरे धीरे पीछे छूट रही हैं, आजकल के बच्चों का रुझान भी कम होता जा रहा है इन चीजों से।
इसके जिम्मेदार भी कहीं न कहीं हम ही हैं क्यूंकी अब बच्चों को वो पहले का जैसा ना तो माहौल मिलता है ना इन परम्पराओं के बारे में ज्ञान। इन सबकी वजह है अपने पहाड़ से होता हुआ पलायन।
लेकिन मेरा मानना तो यही है कि हमें इन परम्पराओं को जीवित रखने का प्रयास तो करना ही चाहिये, इनके बारे में अपने बच्चों को जानकारी दे कर।
फुलदेई त्यार पर बनी एक कुमाऊँनी हिन्दी कविता
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बेहतरीन प्रयास
ReplyDeleteजी धन्यवाद। जोशी जी।
Deleteसुन्दर पोस्ट बिष्ट ज्यू
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